Tuesday, December 20, 2011

मधुशाला - -हरिवंश राय बच्‍चन My favorite

मधुशाला
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मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?'
असमंजस में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हूँ-
'राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला'।

पौधे आज बने हैं साकी
ले-ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिनके अंदर
परिमल-मधु-सुरभित हाला,
माँग-माँगकर भ्रमरों के दल
रस की मदिरा पीते हैं,
झूम-झपक मद-झंपित होते,
उपवन क्या है मधुशाला!

एक तरह से सबका स्वागत
करती है साकीबाला,
अज्ञ-विज्ञ में है क्या अंतर
हो जाने पर मतवाला,
रंक-राव में भेद हुआ है
कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक
है यह मेरी मधुशाला।

छोटे-से जीवन में कितना
प्यार करूँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में
कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की
होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही
मेरी जीवन-मधुशाला!

शराब को 'जीवन' की उपमा देकर डॉ. बच्चन ने 'मधुशाला' के माध्यम से एकजुटता की सीख दी। कभी उन्होंने हिन्दू और मुसलमान के बीच बढ़ती कटुता पर कहा-
मुसलमान और हिन्दू हैं दो,
एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय,
एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक
मंदिर-मस्जिद में जाते
मंदिर-मस्जिद बैर कराते,
मेल कराती मधुशाला।

जातिवाद पर करारी चोट करते हुए उन्होंने लिखा-
कभी नहीं सुन पड़ता, इसने,
हां छू दी मेरी हाला,
कभी नहीं कोई कहता- उसने,
जूठा कर डाला प्याला,
सभी जाति के लोग बैठकर
साथ यहीं पर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है
काम अकेली मधुशाला।



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